विचारणीय विषय :
वर्तमान संसार वक्त के साथ अंधी दौड़ लगा रहा है। "अंधी दौड़ "- जी हाँ ! आँखों में पट्टी बांध, बिना बुद्धि विवेक का सहारा लिए सब इस दौड़ में शामिल हैं. बच्चे-बूढ़े और आज की नौजवान पीढ़ी , सभी इस दौड़ में जीत जाना चाहते हैं. भला सब कैसे जीत सकते हैं - गर नहीं जीत पाए तो फिर उदासी , निराशा , ईर्ष्या और भय जैसे अनेकों नकारात्मक विचारो से सब अपने आपको घिरा महसूस करतें हैं. चलिए सबसे पहले इस प्रतियोगिता को समझ लिया जाये। इस प्रतियोगिता की शुरुआत आदम मस्तिष्क ने ही की है - ये प्रतियोगिता नौकरी पाने वाली प्रतियोगिता से कुछ अलग है, (नौकरी पाने वाली प्रतियोगिया की बात हम बीच में जरूर करेंगे ). और ये प्रतियोगिता है एक दूसरे से आगे बढ़ने की ,तुलनात्मक जीवन जीने की ,सोशल मीडिया की भेंट चढ़ती नरम भावनाओं के पत्थर बन जाने की, जिसका परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई तो नहीं देता पर अवसाद, तनाव और मानसिक विकारों के रूप में कब इंसान को लीलना शुरू कर देता है , मालूम ही नहीं चल पाता। 2017 में महामहिम राष्ट्रपति महोदय रामनाथ कोविंद ने NIMHANS( National Institute of Mental Health and Neurosciences)के दीक्षांत समारोह में बहुत बड़ी बात साझा की और चिंता भी जताई -" भारत पर संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का खतरा मंडरा रहा है और हमें 2022 तक मुस्तैदी से सभी तक मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुंचानी होंगी। " साधारण सी लगने वाली ये बात बहुत गहरी है। स्वस्थ प्रतियोगिता अच्छी है पर इसका "अंधी-दौड़ " में तब्दील होना विचारणीय विषय है।
कुछ मानसिक प्रश्न :
इस बात को समझने के लिए बात करते हैं इस अंधी दौड़ या इस अनिश्चित सी प्रतियोगिया के पहले पड़ाव की, जिसकी शुरुआत नन्हे-मुन्हों की जिंदगी से होती है। सवेरे-सवेरे अपने वजन से ज्यादा भार लादे स्कूल जाने के लिए तैयार बच्चों पर तो आपकी नज़र जाती ही होगी। गौर कीजियेगा - स्कूल जाते वक्त इन मासूम चेहरों पर चिंता की , कुछ भारीपन और कुछ बैचेनी की उभर आने वाली लकीरों पर । क्लास प्रोजेक्ट क्या टीचर को अच्छा लगेगा , कितने अंक मुझे मिल पाएंगे, अगर क्लास के ओर बच्चों से कम अंक आये तो क्या होगा ,ना जाने आज कौनसे टीचर की नज़र मुझपे टिक जाएगी और मेरे सकुचाये से मन में उमड़ने वाली भावनाओं को जाने बगैर या तो वह एक चपत लगा देंगे या उनकी भारी भरकम आवाज़ से हम सहम से जायेंगे। घर पर अपने मार्क्स से माता-पिता को खुश ना कर पाए तो....... और भी न जाने क्या क्या सवाल। ...... हमारी ख़ुशी किस में हैं -किसी ने जानने की कोशिश तक नहीं की। बचपन से ही सीख गए खुशियों को दूसरो के हवाले करना। अच्छे मार्क्स आये तो माता पिता खुश वरना लंबा-चौड़ा भाषण तैयार है। मासूम मन तो कोरे कागज़ की तरह होता है , भरने वाले रंग पक्की पकड़ बना लेते हैं। मानसी और राजीव को लें , नज़रें घुमाये ......... कई मानसी और राजीव आपको आस-पास दिखाई देंगे , क्या पता इनके बहाने आपको अपना बचपन याद आ जाये। राजीव की ख़ुशी तो क्लास टॉप करने पर फोकस करने से ज्यादा स्पोर्ट्स में होनी चाहिए थी , क्यूंकि बैडमिंटन खेलना उसे ख़ुशी देता है। पर ख़ुशी अब उसकी नहीं है , परीक्षा के अंकों की एवज़ में उसने ख़ुशी गिरवी रख दी है। एक ही सवाल है उसके मन में मार्क्स और दबाव का क्या रिश्ता और स्पोर्ट्स को ताक पर रख के क्यूँ ? मानसी को ही लीजिये , उसे कविताये लिखनेका शौक है , पर मैडम चाहती है वह डिबेट में भाग ले। किसी ने मानसी से पूछा तक नहीं वह क्या चाहती है. वह भी इस सोच में है -आखिर अपनी बात रखने का हक़ क्यों नहीं मिलता बच्चों को, बोलें तो गलत कह चुप करा दिया जाता है।
दबाव भरी शुरुआत :
अपनी खुशियों को दाव पर लगाते लगाते मानसी और राजीव जैसे नन्हे होनहार किशोरावस्था की दहलीज पर जब पहुँचते हैं, तब जाकर शुरू होती है जिंदगी की असल परीक्षा जिसे कहते हैं -डॉक्टर , इंजीनियर बनने की परीक्षा या यूँ कहूं एक दबाव की शुरुआत। दबाव का जन्म ही नहीं होता यदि मालविका और राजीव से एक बार बार पूछ लिया जाता आखिर वो क्या चाहते हैं। अगर ऐसा होता तो कोटा से आत्महत्या की खबरें अखबार में न छायीं होती। चलिए एक बारी डॉक्टर- इंजीनियर को छोड़ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की बात कर ली जाये, जहाँ पेपर लीक होना तो आम बात हो गयी है। मेहनत कर सपनों को छूने की चाह रखने वाले युवाओं के मनोमस्तिष्क पर इन मसलों का नकारात्मक प्रभाव शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। पर डिग्री पर जोर देने वाली हमारी शिक्षा पद्धति क्या तनाव और निराशा का सामना करने के लिए इस युवा नस्ल को तैयार कर पायी है ?स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा , मनोवैज्ञानिक पहलूों पर न बात की जाती है , न जागरूक किया जाता है और ना ही ऐसा माहौल तैयार हो पाया है की मन की उलझनों को खुले तौर पर समाज के साथ साझा किया जा सके।
जरा मन को टटोलिये :
शानो-शौकत , नाम-रुतबा पा लेने के बावजूद बैचेनी , अधूरापन परछाई की तरह कदम से कदम मिला कर चलने लगते हैं. बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँच जाने भर से जिंदगी की किताब रंग बिरंगे रंगों से नहीं भर जाती. दोहरी ज़िन्दगी जीना अवसाद , चिंता , और तनाव की एक बानगी भर है. एक खालीपन जो हमें काटने को दौड़ता है, एक अधूरापन जिसे हम बाहरी दुनिया के लाजो-सामान से पूरित कर देना चाहते हैं। उम्मीदों का एक पुलिंदा खड़ा कर लेते हैं अपने चारों ओर। और जब ये बाहरी दुनिया हमारी उम्मीदों पूरी नहीं कर पाती , हम टूट जाते हैं , रिश्तों पर से भरोसा खो बैठते हैं। अकेलेपन को अपना साथी बना नफरत , ईर्ष्या और ग्लानि से नया नाता जोड़ लेते हैं.
विडम्बा ही तो है की सोशल मीडिया पर हज़ारों दोस्त होने के बावजूद आज इंसान एकाकीपन में जीने को बेबस है। इस दुनिया का हर एक शख्स चक्रव्यूह में फँसा हुआ है । चक्रव्यूह खुशियां बहार तलाशने का और अपनी खुशियों को दूसरों के हवाले कर देने का। इस चक्रव्यूह में फंसने की शुरुआत तो बचपन से ही हो जाती है , जो एक श्रंखला की तरह हमारी अंतिम सांसों तक हमारा पीछा करती है। इस चक्रव्यूह को भेदने की कोशिश किसी आधुनिक पीढ़ी ने नहीं की। हमारे प्राचीन शास्त्रों ने तो जीवन में संतुलन का जो स्वर्णिम नियम बताया , वह तो भौतिकवादी युग में जैसे खोता चला गया। भौतिक वस्तुओं में आनंद की तलाश हम कर रहे हैं , पर विचारणीय हैं की विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO) के आंकड़ों के अनुसार 4. 5 % भारतीय (2015 आंकड़े ) तनाव से ग्रसित हैं और निमहंस ( National Institute of Mental Health and NeuroSciences) के 2016 आंकड़ों के अनुसार 20 में से हर एक भारतीय किसी ने किसी रूप में तनाव का शिकार हैं
ख़ुशी बुला रही है :
जीवन में सफल होना, सपनों की लम्बी उड़ान भरना , सहूलतों के रास्ते तलाशना हम सभी का हक़ है , पर बाहरी आकर्षण और दिखावे भर के लिए अपनी खुशियों को दूसरों पर निर्भर क्यों बनाया जाये। ये जिंदगी ईश्वर ने हमें बक्शी है तो इसे खुद के लिए खुल के जिया जाये। अवसाद, चिंता , निराशा सताए तो मनोवैज्ञानिक कॉउंसलर से बात करने में क्यूँ हिचकिचाया जाए। शरीर के बाकी अंग जैसे हृदय , लीवर और किडनी में किसी खराबी के चलते हम परेशान -बेहाल हो जाते हैं , मस्तिष्क भी तो हमारे शरीर का एक हिस्सा है , बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा। हम इसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैं , जरा सोचके देखिये। तो फिर झिझक कैसी- चिंता , अवसाद या किसी भी तरह की मानसिक बीमारी पागलपन की निशानी नहीं है , बस जिंदगी की चुनौतियों और कभी कभी बाहरी चका-चौंध के मोह-पाश में फँसे हम भावनात्मक रूप से कमज़ोर पड़ जाते हैं।
पर फिर यदि ये ख्याल कोंध जाये की " लोग क्या कहेंगे ", तो फिर से सुन लीजिए या कहूं गाँठ बांध लीजिये "ये जिंदगी आपकी है न, क्यों न खुल के जी लिया जाए। बचपन बीत गया तो क्या , आने वाली पीढ़ी को तो खुशियों का सच्चा मतलब समझा सकते हैं। उन्हें उस दबाव और घुटन भरे दलदल में क्यों झोंकना। गीता में भी लिखा है " दिव्य ज्योति तो हर मनुष्य के अन्तर्मन में समाहित है। " बस आज स्वयं भीतर झांकिए , रोशनी बिखेरती खुशियां तो अंदर हैं , आपके ही मन के भीतर। और फिर " कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना ". क्षणभंगुर चकाचोंध में मत भागिए , जरा थम जाइये , गहरी साँस लीजिये , सांसो को महसूस कीजिये और फिर शुक्रिया अदा कीजिये ईश्वर का जिसने नियामत में ये जिंदगी हम सभी को बख़्शी हैं। और हाँ सुनिए - ख़ुशी बुला रही है, तैयार हैं आप उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए।
ढ़ेरों दुआएँ आप सभी के लिए
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©Renuka Aditi
वर्तमान संसार वक्त के साथ अंधी दौड़ लगा रहा है। "अंधी दौड़ "- जी हाँ ! आँखों में पट्टी बांध, बिना बुद्धि विवेक का सहारा लिए सब इस दौड़ में शामिल हैं. बच्चे-बूढ़े और आज की नौजवान पीढ़ी , सभी इस दौड़ में जीत जाना चाहते हैं. भला सब कैसे जीत सकते हैं - गर नहीं जीत पाए तो फिर उदासी , निराशा , ईर्ष्या और भय जैसे अनेकों नकारात्मक विचारो से सब अपने आपको घिरा महसूस करतें हैं. चलिए सबसे पहले इस प्रतियोगिता को समझ लिया जाये। इस प्रतियोगिता की शुरुआत आदम मस्तिष्क ने ही की है - ये प्रतियोगिता नौकरी पाने वाली प्रतियोगिता से कुछ अलग है, (नौकरी पाने वाली प्रतियोगिया की बात हम बीच में जरूर करेंगे ). और ये प्रतियोगिता है एक दूसरे से आगे बढ़ने की ,तुलनात्मक जीवन जीने की ,सोशल मीडिया की भेंट चढ़ती नरम भावनाओं के पत्थर बन जाने की, जिसका परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई तो नहीं देता पर अवसाद, तनाव और मानसिक विकारों के रूप में कब इंसान को लीलना शुरू कर देता है , मालूम ही नहीं चल पाता। 2017 में महामहिम राष्ट्रपति महोदय रामनाथ कोविंद ने NIMHANS( National Institute of Mental Health and Neurosciences)के दीक्षांत समारोह में बहुत बड़ी बात साझा की और चिंता भी जताई -" भारत पर संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का खतरा मंडरा रहा है और हमें 2022 तक मुस्तैदी से सभी तक मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुंचानी होंगी। " साधारण सी लगने वाली ये बात बहुत गहरी है। स्वस्थ प्रतियोगिता अच्छी है पर इसका "अंधी-दौड़ " में तब्दील होना विचारणीय विषय है।
कुछ मानसिक प्रश्न :
इस बात को समझने के लिए बात करते हैं इस अंधी दौड़ या इस अनिश्चित सी प्रतियोगिया के पहले पड़ाव की, जिसकी शुरुआत नन्हे-मुन्हों की जिंदगी से होती है। सवेरे-सवेरे अपने वजन से ज्यादा भार लादे स्कूल जाने के लिए तैयार बच्चों पर तो आपकी नज़र जाती ही होगी। गौर कीजियेगा - स्कूल जाते वक्त इन मासूम चेहरों पर चिंता की , कुछ भारीपन और कुछ बैचेनी की उभर आने वाली लकीरों पर । क्लास प्रोजेक्ट क्या टीचर को अच्छा लगेगा , कितने अंक मुझे मिल पाएंगे, अगर क्लास के ओर बच्चों से कम अंक आये तो क्या होगा ,ना जाने आज कौनसे टीचर की नज़र मुझपे टिक जाएगी और मेरे सकुचाये से मन में उमड़ने वाली भावनाओं को जाने बगैर या तो वह एक चपत लगा देंगे या उनकी भारी भरकम आवाज़ से हम सहम से जायेंगे। घर पर अपने मार्क्स से माता-पिता को खुश ना कर पाए तो....... और भी न जाने क्या क्या सवाल। ...... हमारी ख़ुशी किस में हैं -किसी ने जानने की कोशिश तक नहीं की। बचपन से ही सीख गए खुशियों को दूसरो के हवाले करना। अच्छे मार्क्स आये तो माता पिता खुश वरना लंबा-चौड़ा भाषण तैयार है। मासूम मन तो कोरे कागज़ की तरह होता है , भरने वाले रंग पक्की पकड़ बना लेते हैं। मानसी और राजीव को लें , नज़रें घुमाये ......... कई मानसी और राजीव आपको आस-पास दिखाई देंगे , क्या पता इनके बहाने आपको अपना बचपन याद आ जाये। राजीव की ख़ुशी तो क्लास टॉप करने पर फोकस करने से ज्यादा स्पोर्ट्स में होनी चाहिए थी , क्यूंकि बैडमिंटन खेलना उसे ख़ुशी देता है। पर ख़ुशी अब उसकी नहीं है , परीक्षा के अंकों की एवज़ में उसने ख़ुशी गिरवी रख दी है। एक ही सवाल है उसके मन में मार्क्स और दबाव का क्या रिश्ता और स्पोर्ट्स को ताक पर रख के क्यूँ ? मानसी को ही लीजिये , उसे कविताये लिखनेका शौक है , पर मैडम चाहती है वह डिबेट में भाग ले। किसी ने मानसी से पूछा तक नहीं वह क्या चाहती है. वह भी इस सोच में है -आखिर अपनी बात रखने का हक़ क्यों नहीं मिलता बच्चों को, बोलें तो गलत कह चुप करा दिया जाता है।
दबाव भरी शुरुआत :
अपनी खुशियों को दाव पर लगाते लगाते मानसी और राजीव जैसे नन्हे होनहार किशोरावस्था की दहलीज पर जब पहुँचते हैं, तब जाकर शुरू होती है जिंदगी की असल परीक्षा जिसे कहते हैं -डॉक्टर , इंजीनियर बनने की परीक्षा या यूँ कहूं एक दबाव की शुरुआत। दबाव का जन्म ही नहीं होता यदि मालविका और राजीव से एक बार बार पूछ लिया जाता आखिर वो क्या चाहते हैं। अगर ऐसा होता तो कोटा से आत्महत्या की खबरें अखबार में न छायीं होती। चलिए एक बारी डॉक्टर- इंजीनियर को छोड़ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की बात कर ली जाये, जहाँ पेपर लीक होना तो आम बात हो गयी है। मेहनत कर सपनों को छूने की चाह रखने वाले युवाओं के मनोमस्तिष्क पर इन मसलों का नकारात्मक प्रभाव शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। पर डिग्री पर जोर देने वाली हमारी शिक्षा पद्धति क्या तनाव और निराशा का सामना करने के लिए इस युवा नस्ल को तैयार कर पायी है ?स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा , मनोवैज्ञानिक पहलूों पर न बात की जाती है , न जागरूक किया जाता है और ना ही ऐसा माहौल तैयार हो पाया है की मन की उलझनों को खुले तौर पर समाज के साथ साझा किया जा सके।
जरा मन को टटोलिये :
शानो-शौकत , नाम-रुतबा पा लेने के बावजूद बैचेनी , अधूरापन परछाई की तरह कदम से कदम मिला कर चलने लगते हैं. बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँच जाने भर से जिंदगी की किताब रंग बिरंगे रंगों से नहीं भर जाती. दोहरी ज़िन्दगी जीना अवसाद , चिंता , और तनाव की एक बानगी भर है. एक खालीपन जो हमें काटने को दौड़ता है, एक अधूरापन जिसे हम बाहरी दुनिया के लाजो-सामान से पूरित कर देना चाहते हैं। उम्मीदों का एक पुलिंदा खड़ा कर लेते हैं अपने चारों ओर। और जब ये बाहरी दुनिया हमारी उम्मीदों पूरी नहीं कर पाती , हम टूट जाते हैं , रिश्तों पर से भरोसा खो बैठते हैं। अकेलेपन को अपना साथी बना नफरत , ईर्ष्या और ग्लानि से नया नाता जोड़ लेते हैं.
विडम्बा ही तो है की सोशल मीडिया पर हज़ारों दोस्त होने के बावजूद आज इंसान एकाकीपन में जीने को बेबस है। इस दुनिया का हर एक शख्स चक्रव्यूह में फँसा हुआ है । चक्रव्यूह खुशियां बहार तलाशने का और अपनी खुशियों को दूसरों के हवाले कर देने का। इस चक्रव्यूह में फंसने की शुरुआत तो बचपन से ही हो जाती है , जो एक श्रंखला की तरह हमारी अंतिम सांसों तक हमारा पीछा करती है। इस चक्रव्यूह को भेदने की कोशिश किसी आधुनिक पीढ़ी ने नहीं की। हमारे प्राचीन शास्त्रों ने तो जीवन में संतुलन का जो स्वर्णिम नियम बताया , वह तो भौतिकवादी युग में जैसे खोता चला गया। भौतिक वस्तुओं में आनंद की तलाश हम कर रहे हैं , पर विचारणीय हैं की विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO) के आंकड़ों के अनुसार 4. 5 % भारतीय (2015 आंकड़े ) तनाव से ग्रसित हैं और निमहंस ( National Institute of Mental Health and NeuroSciences) के 2016 आंकड़ों के अनुसार 20 में से हर एक भारतीय किसी ने किसी रूप में तनाव का शिकार हैं
ख़ुशी बुला रही है :
जीवन में सफल होना, सपनों की लम्बी उड़ान भरना , सहूलतों के रास्ते तलाशना हम सभी का हक़ है , पर बाहरी आकर्षण और दिखावे भर के लिए अपनी खुशियों को दूसरों पर निर्भर क्यों बनाया जाये। ये जिंदगी ईश्वर ने हमें बक्शी है तो इसे खुद के लिए खुल के जिया जाये। अवसाद, चिंता , निराशा सताए तो मनोवैज्ञानिक कॉउंसलर से बात करने में क्यूँ हिचकिचाया जाए। शरीर के बाकी अंग जैसे हृदय , लीवर और किडनी में किसी खराबी के चलते हम परेशान -बेहाल हो जाते हैं , मस्तिष्क भी तो हमारे शरीर का एक हिस्सा है , बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा। हम इसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैं , जरा सोचके देखिये। तो फिर झिझक कैसी- चिंता , अवसाद या किसी भी तरह की मानसिक बीमारी पागलपन की निशानी नहीं है , बस जिंदगी की चुनौतियों और कभी कभी बाहरी चका-चौंध के मोह-पाश में फँसे हम भावनात्मक रूप से कमज़ोर पड़ जाते हैं।
पर फिर यदि ये ख्याल कोंध जाये की " लोग क्या कहेंगे ", तो फिर से सुन लीजिए या कहूं गाँठ बांध लीजिये "ये जिंदगी आपकी है न, क्यों न खुल के जी लिया जाए। बचपन बीत गया तो क्या , आने वाली पीढ़ी को तो खुशियों का सच्चा मतलब समझा सकते हैं। उन्हें उस दबाव और घुटन भरे दलदल में क्यों झोंकना। गीता में भी लिखा है " दिव्य ज्योति तो हर मनुष्य के अन्तर्मन में समाहित है। " बस आज स्वयं भीतर झांकिए , रोशनी बिखेरती खुशियां तो अंदर हैं , आपके ही मन के भीतर। और फिर " कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना ". क्षणभंगुर चकाचोंध में मत भागिए , जरा थम जाइये , गहरी साँस लीजिये , सांसो को महसूस कीजिये और फिर शुक्रिया अदा कीजिये ईश्वर का जिसने नियामत में ये जिंदगी हम सभी को बख़्शी हैं। और हाँ सुनिए - ख़ुशी बुला रही है, तैयार हैं आप उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए।
ढ़ेरों दुआएँ आप सभी के लिए
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